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प्रकाश पुरब “ गुरु गोबिंद सिंह जी “

प्रकाश पुरब  “ गुरु गोबिंद सिंह जी “
ऐतिहासिक पुरूष कभी भी राजसत्ता प्राप्ति, जमीन-जायदाद, धन सम्पदा या यश प्राप्ति के लिए लड़ाईयां नहीं लड़ते। श्री गुरु गोबिन्द सिंह जी ऐसे ही ऐतिहासिक पुरूष थे, जिन्होनें ताउम्र अन्याय, अधर्म, अत्याचार और दमन के खिलाफ तलवार उठाई और लड़ाईयां लड़ी। गुरू जी की तीन पीढ़ियों ने देश धर्म की रक्षा के लिए महान बलिदान दिया।
गुरु गोबिन्द सिंह सिक्खों के दसवें गुरु थे। वे एक महान दार्शनिक, प्रख्यात कवि, निडर एवं निर्भीक योद्धा, युद्ध कौशल, महान लेखक और संगीत के पारखी भी थे। उनका जन्म 1666 में बिहार के पटना शहर में हुआ । 
वे नौवें सिख गुरु, श्री गुरु तेग बहादुर और माता गुजरी के इकलौते बेटे थे, जिनका बचपन का नाम गोबिंद राय था। गुरु गोविंद सिंह जी एक विलक्षण भक्ति तथा शक्ति के अद्वितीय संगम थे। इसीलिए उन्हें 'संत सिपाही' भी कहा जाता है।
सन् 1699 ई0 में बैसाखी के दिन गुरु गोबिंद सिंह ने “खालसा पंथ”  की स्थापना कर पांच व्यक्तियों को अमृत चखा का ’पांच प्यारे’ बना दिए। इन पांच प्यारों में सभी वर्गो के व्यक्ति थे। इस प्रकार से उन्होंने जात-पात मिटाने के उद्देश्य से अमृत चखाया । बाद में उन्होंने स्वयं भी अमृत चखा और गोबिंद राय से गोबिंद सिंह बन गए।
गुरु गोबिंद सिंह ने   “वाहे गुरुजी का खालसा, वाहे गुरुजी की फतेह” एक खालसा वाणी दी । आदर्शात्मक जीवन जीने और स्वयं पर नियंत्रण के लिए खालसा के पांच मूल सिद्धांतों की भी स्थापना की। जिनमें केस, कंघा, कड़ा, कछ, किरपाण शामिल है। ये सिद्धान्त चरित्रनिर्माण के मार्ग थे। उनका मानना था कि व्यक्ति चरित्रवान होकर ही विपरित परिस्थितियों व अत्याचारों के खिलाफ लड़ सकता है।

गुरु गोबिंद सिंह जी के चार पुत्र थे, जिनका नाम साहिबजादे अजीत सिंह, साहिबजादे जुझार सिंह, साहिबजादे जोरावर सिंह , साहिबजादे फतेह सिंह, था। उन्होंने अपने चारों पुत्र धर्म की रक्षा के लिए कुर्बान किए। मुगल शासक द्वारा दो पुत्र जोरावर सिंह और फतेह सिंह को सरहिंद में दीवार में चुनवा दिया गया । दो पुत्र अजीत सिंह और जुझार सिंह युद्ध में वीरगति को प्राप्त हुए ।
गुरु गोबिंद सिंह जी ने अपने जीवन में आनंदपुर, भंगानी, नंदौन, गुलेर, निर्मोहगढ, बसोली, चमकोर, सरसा व मुक्तसर सहित 14 युद्ध किए। इन जंगों में पहाड़ी राजाओं एवं मुगल सूबेदारों ने हर बार मुंह की खाई। गुरू गोबिन्द सिंह ने कभी स्वार्थ व निजहित के लिए लड़ाई नहीं लड़ी बल्कि उन्होंने उत्पीड़न व अन्याय के खिलाफ लड़ाई लड़ी। इस कारण से हिन्दु व मुस्लिम धर्मों के लोग उनके अनुयायी थे।

सितम्बर 1708 में दक्षिण में महाराष्ट्र के नांदेड़ साहिब में गुरु गोबिंद सिंह जी ने अपनी आखिरी सांस ली। इस प्रकार से पहले पिता गुरु तेग बहादुर सिंह, फिर चारों पुत्रों ने और बाद में श्री गुरु गोबिन्द सिंह जी ने स्वयं बलिदान देकर धर्म की रक्षा की।
स्वामी विवेकानंद जी ने गुरू गोबिंद सिंह जी को एक महान दार्शनिक, संत, आत्मबलिदानी, तपस्वी और स्वानुशासित बताकर उनकी बहादुरी की प्रशंसा की थी। स्वामी विवेकानंद जी ने कहा था मुगल काल में जब हिन्दु और मुस्लिम दोनों ही धर्मों के लोगों का उत्पीड़न हो रहा था तब श्री गुरू गोबिंद जी ने अन्याय, अधर्म और अत्याचारों के खिलाफ और उत्पीड़ित जनता की भलाई के लिए बलिदान दिया था जो एक महान बलिदान है। इस प्रकार से गुरू गोबिंद सिंह जी महानों में महान थे। 
गुरु गोबिंद सिंह को संस्कृत, फारसी, पंजाबी और अरबी भाषाएं भी आती थीं । उनके दरबार में हमेशा 52 कवियों और लेखकों की उपस्थिति रहती थी । गुरु गोबिंद सिंह स्वयं भी एक लेखक थे, अपने जीवन काल में उन्होंने कई ग्रंथों की रचना की थी. गुरु गोविन्द सिंह से संबंधित ग्रन्थ ‘दशम ग्रन्थ’ है। दशम ग्रन्थ का विभाजन ‘जाप साहिब’ , ‘अकाल उसतत’ ,  ‘विचित्र नाटक’, ‘वार श्री भगउती जी की’, ‘ज्ञान प्रबोध’, ‘चौपाया’, ‘शब्द हज़ारे-रामकली’, ‘सवैया बत्तीस’, ‘शास्त्र नाममाला’, ‘स्त्री चरित्र’, तथा ‘जफरनामा’ और ‘हिकायन’ शीर्षकों में किया गया है।

 गुरु गोबिंद सिंह जी ने कहा है ’देह शिवा बर मोहे इहै, शुभ करमन ते कबहूं न टरूं’ यानि हम अच्छे कर्मो से कभी पीछे न हटें, परिणाम भले चाहे जो हो। 
उनके इन विचारों व वाणियों से पता चलता है कि गुरु गोबिंद सिंह जी ने कर्म, सिद्धान्त, समभाव, समानता, निडरता, स्वतंत्रता का संदेश देकर समाज को एक सूत्र में पिरोने का काम किया। उन्होंने कभी भी मानवीय व नैतिक मूल्यों से समझौता नहीं किया। आज फिर जरूरत है कि उनके बताए मार्ग पर चल हम सभी धर्म, समाज व भाईचारे को मजबूत कर श्रेष्ठ भारत के लिए कार्य करें । 

“वाहे गुरुजी का खालसा, वाहे गुरुजी की फतेह”




द्वारा - स्वर्णजीत कौर अरोरा

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